India Strikes Against Pakistani Terrorism 2019

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akk

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Just realised what a shit state this thread has become, due to these pakis. Abuse is a tool of the defeated, when they have nothing else to fight with.
We are the Victors, we have destroyed the pride, capabilities and economy of pakis, so they are abusing us.
We don't have to try to stoop to their level, for its a bottomless pit.
I would suggest, the moderators clean up the last few pages and ban the abusive and defeated pakis and let us continue with discussing the glorious journey the Indian defense forces are currently on.
 

Psy Warrior

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A must read to understand India's position in world

30 जुलाई को अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने मिल कर चीन की BRI परियोजना के मुक़ाबले में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के तार एक दूसरे से बांधने के लिए अपनी एक त्रिपक्षीय योजना की घोषणा कर डाली। इससे ठीक दो माह पहले अमेरिका ने अपनी पैसिफिक क्षेत्र की सैन्य इकाई का नाम पैसिफिक कमांड से बदल कर इंडो-पैसिफिक कमांड कर दिया था। कुछ ने इस घटना को इस क्षेत्र में भारत के उभरते दबदबे को मान्यता देने के रूप में देखा। इसमें कितना तथ्य है उसका विश्लेषण तो आगे करूंगा पर इतना जरूर स्पष्ट है कि जो लोग राष्ट्रपति ट्रम्प के अमेरिका फर्स्ट अजेंडा को लेकर शंका जता रहे थे कि अमेरिका फर्स्ट के चलते अमेरिका इस क्षेत्र में अनिच्छुक शक्ति बन रहा है, उन्हें पुनर्विचार पर मजबूर तो अवश्य होना पड़ा होगा। वास्तव में यदि विश्व या क्षेत्र में अमेरिका को अव्वल रहना है तो चाहे-अनचाहे उसे इस क्षेत्र में अपनी दिलचस्पी कम करने की बजाय बढ़ाने की ज्यादा आवश्यकता होगी। जाहिर है ऐसे समय पर जब इस क्षेत्र की प्रतिस्पर्धाएँ और प्रतियोगिताएं न सिर्फ प्रशांत और हिन्द महासागर को पार कर, बल्कि एशिया और यूरोप के भूभाग को चीर अमरीका और यूरोप के प्राथमिक प्रभाव केन्द्रों में घुसपैठ करने को तत्पर दिख रहें हैं तो भला कौन राष्ट्राध्यक्ष इस क्षेत्र से मुंह मोड़ने की सोच सकता है?

इन महा-रुझानों आकार और दूरगामी प्रभावों को समझने के लिए जरूरी है कि पल की सुर्खियों से परे इस स्खलन में जन्म लेते विभिन्न अभिसरणों (convergences) और विचलनों (divergences) की उठा पटक के तर्क और अर्थ का सार पाने कि कोशिश करें।यही सार निरंतर नियति बनता चला जाता है, पर यह नियति किसी परलोक में लिखी नियती नहीं है।

भू-राजनीतिक स्खलन जब आहट देते हैं तो उनके प्रभाव राष्ट्र विशेष एवम नेता विशेष की परछाई लांघ ऐसे महा-रुझानो को जन्मते हैं जो किसी के बस में होने के बजाय बड़े से बड़े राष्ट्र अथवा राष्ट्राध्यक्ष को वशीभूत करते की क्षमता रखते हैं। काल, देश या व्यक्ति विशेष, सभी इन पर अपना अपना तड़का अवश्य लगाते चलते हैं और इन छौंकों की सुगंध का स्वाद हम रोजाना सोशिल मीडिया, न्यूज़चैनल और अखबारों के माध्यम से अवश्य लेते रहते हैं। किन्तु इन महा-रुझानों आकार और दूरगामी प्रभावों को समझने के लिए जरूरी है कि पल की सुर्खियों से परे इस स्खलन में जन्म लेते विभिन्न अभिसरणों (convergences) और विचलनों (divergences) की उठा पटक के तर्क और अर्थ का सार पाने कि कोशिश करें।यही सार निरंतर नियति बनता चला जाता है, पर यह नियति किसी परलोक में लिखी नियती नहीं है। इसका आधार है एक जटिल मैट्रिक्स जिसमे शामिल है विभिन्न देशों और क्षेत्रों में हो रहे जनसांख्यिकी बदलाव, उनकी बदलती आर्थिक स्थिति तथा इन तब्दीलियों से होने वाले उनके राजनीतिक मूल्यों तथा सामरिक मुद्राओं में बदलाव। अंततः यही तय करता है कि आने वाले समय में कौन सी सांझेदारियाँ परवान चढ़ेंगी और कौन सी समय के सैलाब में डूबकर ओझल हो जाएंगी।

कई ने सोचा होगा कि भारत चूंकि अभी तक अकेला चीनी बीआरआई (BRI) परियोजना का विरोध करता आ रहा है तो वह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की इस त्रिपक्षीय कवायद को गले लगा चतुरपक्षीय साझेदारी में शामिल होने को तत्पर होगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। आखिर क्यों?

उत्तर स्पष्ट है — क्योंकि दुनिया में भारत का स्थान एशिया में सत्ता के संतुलन को बनाए रखने मात्र के बारे में नहीं हो सकता।

राज्य-रजवाड़ों के संघर्ष अब तो कम्प्युटर गेम्स में भी लोकप्रिय नहीं रहे तो फिर सामरिक सोच का ये अब भी एक प्रमुख हिस्सा कैसे रह सकते हैं। वास्तविक दुनिया में कई तरह के गैर परंपरागत संघर्ष आज सामरिक दृष्टि से निरंतर अधिक महत्वपूर्ण बनते जा रहें हैं और इनके दबाव ने परंपरागत खतरों को पीछे छोड़ दिया है। आज दुनिया के सामने विविध प्रकार की असंबद्ध और पृथक चुनौतियाँ मुंह खोले खड़ी हैं जिनसे निबटने के लिए आवशयकता है उतने ही विविध गठबंधनों की।

कई ने सोचा होगा कि भारत चूंकि अभी तक अकेला चीनी बीआरआई (BRI) परियोजना का विरोध करता आ रहा है तो वह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की इस त्रिपक्षीय कवायद को गले लगा चतुरपक्षीय साझेदारी में शामिल होने को तत्पर होगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। आखिर क्यों?

21 वीं शताब्दी शक्ति के निरंतर विकेन्द्रीकरण और प्रसार में जुटी हैं — ऐसे में लाज़मी है कि संप्रभुता की सीमाएं सुकुड़ती जाएंगी। एक तरफ गैर-राज्यीय इकाइयां, बहू-राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन, न्यूयॉर्क और लंदन जैसे वैश्विक वाणिज्यिक केंद्र, सभी की शक्ति के आयाम बदल रहें हैं। दूसरी ओर सोशल मीडिया पर इकट्ठा होते फ्लैश मॉब बड़ी से बड़ी सरकारें हिला सकने की क्षमता रखते हैं।

ऐसी परिस्थिति में दुनिया को सिर्फ बड़ी शक्तियों, मध्य शक्तियों और छोटी शक्तियों के घिसे-पिटे पुराने साँचे में ढाल कर देखना सामरिक सोच की सीमाएं बांधने जैसा है। ऐसा करना सामरिक परिभाषा के बंधन में कुछ को बांध, मोल भाव की कूटनीति करने के काम जरूर आ सकता है पर यह अन्य उप-राष्ट्रीय, प्रोटो-राष्ट्रीय और गैर राष्ट्रीय शक्ति केन्द्रों की अनदेखी करता है जिनकी विश्व स्तर की भूमिका को किसी भी माने में आज महत्वहीन नहीं आँका जा सकता।

ऐसे में आज की दुनिया में सिर्फ शक्ति संतुलन के ध्येय से अपनी सम्पूर्ण विदेश नीति का संचालन भ्रम ही कहा जाएगा। यह कुछ देशों की निजी सामरिक कारणो से चाह अवश्य हो सकती है, किन्तु यह भारत की नियति नहीं है।

वास्तव में आज जब हम चारों ओर परंपरागत कूटनीति की दृष्टि से नज़र दौड़ाए तो असमंजस ही हाथ लगती है।

एक तरफ है अमेरिका, 20 ट्रिलियन डॉलर सालाना सकल घरेलू उत्पाद पर टिकी एक आर्थिक सैनिक और सामरिक महाशक्ति, फिर भी ऐसे कई लोग हैं जो वैश्विक शासन तथा अर्थव्यवस्था में आज उसकी भूमिका पर सवालिया निशान लगाने में लगे हैं। प्रतिबंधों और ट्रेड-वॉर की रस्सा-कशी के बीच, चीन के साथ उसका संवाद और विवाद, दोनों बराबर जारी हैं।

दूसरी ओर है रूस — 2 ट्रिलियन डॉलर पर अटकी अर्थव्यवस्था जिसनें कठोर प्रतिबंधों से जूझते हुए सीरिया में चले आ रहे लंबे संघर्ष में निर्णायक हस्तक्षेप कर, न सिर्फ उस युद्ध की दिशा ही बदल डाली, बल्कि आतंकवाद का पर्याय बन चुके तथाकथित इस्लामी राज्य के सर पर से “राज्य” रूपी चादर ही सरका उसे सर छुपाने के लिए मोहताज कर दिया।

और हाँ, चीन कि भला कोई कैसे अवहेलना कर सकता है? दुनिया की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा; वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 15 प्रतिशत; और दुनिया में अमेरिका के बाद सबसे अधिक रक्षा व्यय करने वाला राष्ट्र — चीन निश्चित रूप से विश्व नेतृत्व का बीड़ा उठाने के लिए भले ही अभी तैयार नहीं है तो भी इसकी होड़ से अपने को अलग नहीं कर सकता।

लेकिन फिर भी क्या चीन अकेला अपने बल पर एशियाई शताब्दी की जन्म कुंडली लिख सकता है?

बीआरआई की दौड़ कितनी दूर
साउथ चाइना सी में चीन कितनी भी लठियाँ भांजे सत्य तो यह है कि उसका सामरिक फोकस निश्चित रूप से पश्चिम की तरफ केंद्रित होना अनिवार्य है। चीन का असंतुलित विकास पिछले कुछ दशकों से उसके लिए गले कि हड्डी बना हुआ है। साथ ही अपने पश्चिमी राज्यों में पनपते इस्लामी आतंकवाद को वह नज़रअंदाज़ करने कि स्थिति में नहीं है। एक ओर असुंतलित विकास झिंजियांग जैसे राज्यों में रह रह कर जन असंतोष को जन्म दे रहा है तो दूसरी तरफ पड़ौस में पनप रहे दहशतगर्दी के कारखाने दरवाजे पर दस्तक देने को तैयार बैठे हैं। अपने दूरस्थ क्षेत्रों पर बेजिंग का वर्चस्व और नियंत्रण लगातार सशक्त रूपसे बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वह अपने पश्चिमी प्रान्तों को मुख्यधारा में शामिल करे। यह एक तरह से चीन के लिए राष्ट्रीय अस्तित्व का सवाल है। इसीलिए बीआरआई कि दौड़ अनवरत पश्चिमी प्रान्तों से होती हुई, संसाधन सम्पन्न मध्य एशिया का वक्ष चीरते हुए आज यूरोप कि ओर अग्रसर है। मध्य एशिया के संसाधन पश्चिमी एशिया के तेल और गैस के स्रोतों पर उसकी निर्भरता में भी कमी लाते हैं। पर इस पूरी कवायद का अंतिम लक्ष्य, अंतिम गंतव्य, आखिरी ट्रॉफी है यूरोप का बाज़ार, यूरोप का टेक्नालजी तंत्र, और हाँ — यूरोप कि आत्मा में अंततः चीन का पदार्पण।

और फिर चीन को उसके द्वारा पिछले दो दशकों में लगाई गयी लोहे, इस्पात, कांच, सीमेंट, एल्यूमीनियम, सौरपैनल, और बिजली उत्पादन उपकरणों की आनन-फानन में खड़ी की गयी बेतहाशा क्षमताओं की भी तो आखिर कहीं न कहीं — ग्वादार हो या फिर हम्बनटोटा — खपाई तो करनी है ना।

इन सभी कारणों से जन्मी बीआरआई परियोजना को राष्ट्रपति झी जिनपिंग ने कनेक्टिविटी की एक लुभावनी कथा में परिवर्तित कर दिया। कथाओं में शक्ति होती है और राष्ट्रपति झी जिनपिंग की इस मृग मरीचिका ने एशिया और यूरोप के कई देशों को अपने तिलिस्म के माया जल में बांध कर रख दिया।

आज एशियन शताब्दी की बात करते-करते यह नया भू-मैट्रिक्स अभी उदय की कगार पर ही है, लेकिन इस के नतीजे कुछ कुछ दिखने लगे हैं।

हमें यह तो स्वीकार करना होगा कि जहां तक कथाओं का सवाल हैं चीन ने वास्तव में एक भव्य तिलिस्म खड़ा किया है जो वादा करता है 21 वीं शताब्दी के सारे महानतम पुरस्कार –जिसके चलते बीआरआई के मार्ग पर विकास की रेल दौड़ेगी, लोगों को रोजगार और व्यापार मिलेगा, और एक संयुक्त आर्थिक रूप से एकीकृत शक्तिशाली एशिया-यूरोप-अफ्रीका का उदय होगा। कोई आश्चर्य नहीं कि तुर्की, बोस्फोरस के माध्यम से एक सुरंग का निर्माण कर मार्ग का एक केंद्र बिन्दु बनने की ख़्वाहिश करे। और हंगरी, सर्बिया, मैसेडोनिया सभी, एशिया और यूरोप भर में मानचित्र पर रेखाओं के इस उभरते मायाजाल से सम्मोहित हो जाएँ।

पर इस कथानक का एक और असर हुआ है जिसे अहमियत देना मेरे विचार में बहुत जरूरी है। इसके पैर जमते ही हमारे साझा भू-रणनीतिक स्थान को फिर से परिभाषित करने की कवायद का मानो एक नए सिरे से श्रीगणेश हो गया हो।आज एशियन शताब्दी की बात करते-करते यह नया भू-मैट्रिक्स अभी उदय की कगार पर ही है, लेकिन इस के नतीजे कुछ कुछ दिखने लगे हैं।

मसलन इस के उभरते ही इस साल मई में अमरीका ने पैसिफिक कमांड का नाम बदल कर इंडो-पैसिफिक कमांड रख दिया।

किन्तु सिर्फ नाम बदल देने से भू-राजनैतिक परिभाषाएँ या उनके आयाम नहीं बदल जाते। अमेरिका सैन्य कमांड संरचना की मौजूदा एकाइयों में अभी भी एशिया का हमारा क्षेत्र प्रशांत कमांड और सेंट्रल कमांड के पृथक पृथक अधिकार क्षेत्रों में विभाजित है। इस विभाजन कि जड़ें गहरी हैं। और इस विभाजन के चलते न सिर्फ हमारा एशियाई महाद्वीप विभाजित हैं बल्कि दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया को भी पश्चिमी गोलार्ध की सामरिक नीतियों में पृथक-पृथक कर के देखा जाता है। इस विभाजन के चलते अमेरिका भारत से साउथ चाइना सी, आसियान (ASEAN), म्यांमार और अधिकाधिक श्री लंका की सीमा तक तो बात करने को तत्पर रहता है, किन्तु अफ़ग़ानिस्तान और पश्चिमी एशिया की गुत्थियों से टकराने के लिए उसे हमारे ही पड़ोस में अन्य कहीं अधिक सक्षम कलाकार नज़र आने लगते हैं।

कोई आश्चर्य नहीं कि तुर्की, बोस्फोरस के माध्यम से एक सुरंग का निर्माण कर मार्ग का एक केंद्र बिन्दु बनने की ख़्वाहिश करे। और हंगरी, सर्बिया, मैसेडोनिया सभी, एशिया और यूरोप भर में मानचित्र पर रेखाओं के इस उभरते मायाजाल से सम्मोहित हो जाएँ।

इस विचलन ने एक तरह से यूरोप और अमेरिका की कमांड नौकरशाही और राजनयिक डेस्कों में विद्यमान विचारों पर उपनिवेश जमा कर मानो उन पर कब्जा कर लिया हो। और इसी राह चलते, भिन्न भिन्न शिक्षाविदों, सामरिक लेखकों ने भी इसी नौकरशाही सोच की भेड़-चाल अपना कर, इतिहास-पूर्व से जुड़े हुए इन क्षेत्रों का ना सिर्फ दो अलग समानांतर सार्वभौमिकों के रूप में अध्ययन कियाहै, बल्कि पश्चिमी नौकरशाहों की तर्ज पर स्वयं हमने भी एक दूसरे को एक सांझा एकीकृत क्षेत्र के रूपमें समझने का प्रयास नहीं किया।

संभवतः 21वीं सदी वह सदी है जब इस सामरिक मिथिक का तिरस्कार कर हम न सिर्फ एशिया, बल्कि एशिया के साथ यूरोप तथा अफ्रीका के भू-समूह को एक रूपता की दृष्टि से देख एक नयी भू-राजनैतिक सरंचना का निर्माण कर सकें।

इस नयी संरचना के चलते इंडो-पैसिफिक का अंत बंगाल की खाड़ी पर नहीं होगा; बल्कि यह अरब सागर को पार पश्चिम एशिया और अफ्रीका के तटों का आलिंगन कर अटलांटिक महासगर को अपनी चपेट में लेकर यूरोप को अपने आग़ोश में लेगी। लुक ईस्ट (Look East) और उसके बाद एक्ट ईस्ट (Act East) का महत्व अपनी जगह है, पर पश्चिमी हिंद महासागर ही वह स्थान है जहां भारत के आर्थिक हित, इसके विस्तार, ऊर्जा के स्रोत और लाखों हिन्द के प्रवासी अपनी गुज़र बसर कर भारत में रह रहे अपने परिजनों का पालन पोषण कर रहे हैं। कभी भी भारत की किसी भी सरकार द्वारा इस क्षेत्र तथा इस में चल रहे संघर्षों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है।

इस तरह से देखा जाए तो बीआरआई कि कल्पना ने दुनिया के तीन विशालतम महाद्वीपों को एक कर, एक नयी सामरिक सोच का श्री गणेश किया है। भूगोल कि दृष्टि से भी यहाँ तीन माहद्वीप तो कभी थे ही नहीं। अवश्य कुछ पश्चिमी भूगोल-शास्रज्ञ थे जिन्होंने द्वीप कि सीधी सरल परिभाषा को नज़र अंदाज कर, एक महानतम महाद्वीप को तीन तीन महादेशों में विभाजित कर उसे एशिया, यूरोप और अफ्रीका का अलग-थलग जामा पहना दिया।

लुक ईस्ट (Look East) और उसके बाद एक्ट ईस्ट (Act East) का महत्व अपनी जगह है, पर पश्चिमी हिंद महासागर ही वह स्थान है जहां भारत के आर्थिक हित, इसके विस्तार, ऊर्जा के स्रोत और लाखों हिन्द के प्रवासी अपनी गुज़र बसर कर भारत में रह रहे अपने परिजनों का पालन पोषण कर रहे हैं। कभी भी भारत की किसी भी सरकार द्वारा इस क्षेत्र तथा इस में चल रहे संघर्षों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है।

बीआरआई की दौड़ कितनी तेज़
पर मानचित्र पर रेखाएँ खींच और सामरिक कथाओं कि गांठों में दुनिया को बांधना तो आसान है। समस्या तो तब आती हैं जब जमीन पर बीआरआई जैसी परियोजनाओं को स्वरूप दिया जाए। सही मायने में कनेक्टिविटी परियोजनाएं बिरले ही केंद्रीय रूप से योजनाबद्ध, निर्देशित-आदेशित और विनियमित डिजाइनों के रूप में प्रकट नहीं हो सकती। ऐसा करने से सिर्फ निर्माण होता है हम्बनटोटा जैसे भूतिया बन्दरगाहों का जहां कोई जहाज़ डॉक करना तो दूर, 18 किमी दूर निर्मित मट्टाला इंटरनेशनल एयरपोर्ट के एयर कार्गो टर्मिनलों तक को धान कि फसल रखने के लिए किराए पर देने कि नौबत आ जाती है।

अंततः ऐसी परियोजनाएँ जो सीमेंट और स्टील खपाने के चक्कर में मेज़बान मुल्क को असहनीय वित्तीय बोझ के तले धारशायी ही कर दे, न तो मेजबान देश, न ही उसके ऋणदाता कि हित में हैं। और इन्हीं के चलते बीआरआई के आर्थिक तर्क पर आज न सिर्फ मेजबान देशों में बल्कि चीन में स्वयं प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं। यहाँ तक कि इन लगातार हो रहीं टिप्पणियों से त्रस्त राष्ट्रपति झी जिनपिंग ने तो अब कई चीनी शिक्षाविदों को राष्ट्रवाद कि जबर्दस्ती दीक्षा देने की धमकी तक दे डाली है।

कनेक्टिविटी स्टील सीमेंट कंकर पत्थर के ढांचे खड़े करने से नहीं होती है। यह राष्ट्रों, समुदायों, उप-समूहों और कई जीवित संस्कृतियों तथा उप-संस्कृतियों और उनमे पले-पनपे लोगों के जीवन को जोड़ने का कठिन, अथक और निरंतर चलने वाला प्रयास है। और ऐसे प्रयास जमीन से जुड़, नीचे से ऊपर बढ़ते हैं न कि कथाओं में खड़े किए तिलिस्मी माया जाल के मंत्रोचारण मात्र से। चिंदी-चिंदी टुकड़े-टुकड़े जोड़ ही बड़ी भरी भरकम इस पहेली का समाधान पाया जा सकता है। औरक्षेत्रीय एकीकरण कि इस विशाल पहेली को बूझाने के लिए सब से अधिक आवश्यक है विभिन्न देशों औए देशों के भीतर स्थित अनेकानेक एकाइयों का आपसी विश्वास। यह विश्वास आपस में मूल्यों, नियमों और मानदंडों में समानताके बिना कभी भी उजागर नहीं हो सकता। और ऐसा किए बिना दिल छोड़िए,दिमाग छोड़िए — लोगों के आपसी स्वार्थों को भी जोड़ना असंभव है।

तो फिर दुनिया में भारत का स्थान यदि एशिया में सत्ता के संतुलन को बनाए रखने मात्र के बारे में नहीं हो सकता तोअवश्य भारत की नियति बनती है की समान विचारधारा रखने वाली शक्तियों के साथ साझेदारी कर, एक शांतिपूर्ण, समृद्ध और उत्पादक एशिया-प्रशांत क्षेत्र के निर्माण मैं न सर्फ भागीदार बने, बल्कि उसके नेत्रत्व का बीड़ा उठाने को तैयार रहे। और नेतृत्व का बीड़ा उठाने के लिए आवश्यक है की निरंतर समान विचारधारा वाली शक्तियों की संख्या में इजाफा हो। यही सोच है जिसके चलते प्रधान मंत्री मोदी तथा राष्ट्रपति झी जिनपिंग के बीच वुहान में ना सिर्फ बात-चीत देखी जा सकी, बल्कि भारत और चीन ने अफ़ग़ानिस्तान में शांति तथा विकास के लिए सांझा परियोजना हाथ में लेने तक की बात की। इसी के तुरंत बाद सोची में राष्ट्रपति पुतिन और प्रधान मंत्री मोदी आपस में मिले और दोनों नेताओं के बीच लंबी बातें हुईं, नये उभरते विश्व क्रम के बारे में। इधर बगल देश में भी चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। और भारत अपने पश्चिमी पड़ोसी के घर में हो रही नई सरकार की नई खुसर-पुसर पर भी एक कान जरूर लगाये हुए है। समय ही बताएगा की इस सुगबुगाहट के पीछे के इरादे कितने नेक और कितने अनेक हैं।
 

Shashank Nayak

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Just realised what a shit state this thread has become, due to these pakis. Abuse is a tool of the defeated, when they have nothing else to fight with.
We are the Victors, we have destroyed the pride, capabilities and economy of pakis, so they are abusing us.
We don't have to try to stoop to their level, for its a bottomless pit.
I would suggest, the moderators clean up the last few pages and ban the abusive and defeated pakis and let us continue with discussing the glorious journey the Indian defense forces are currently on.
And also block those masquerading as Brits...like dear medway76
 

AUSTERLITZ

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Clean up the thread mods and take care of the inbred baboon.
As a parting gift for him.Dekh le aukat.Boys played well.


Pakistan region in its entire history was never a strong independent power,it was always slave of someone else or insiginificant frontier petty state. Greeks,Mauryans,sakas,kushanas,guptas, hunas,rajputs,arabs,turks,afghans, mughals, sikhs, british.Only time a local power was a mighty state was sikh khalsa under ranjit singh.

To surrender is the basic instinct of 'pak sar zameen'.
 

akk

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Anybody has an idea......
1. If Paki airspace is still restricted.
2. Tank movement was reported on their side, have we destroyed any more of their tanks?
3. Are more CAPs happening?
4. What happened on march 5,6? Did we destroy their nuclear facility?
5. Have they transferred all nukes to Saudi, or some are still left? Are they still classed as a nuclear armed nation?
6. What happened on the mountains today? There were tweets on some impending action.
7. Are blackouts still happening in karachi?
8. Is IK staying or going?
9. What is happening with Gafoora?
10. Is pak going to remain gray listed or moving to blacklist?
11. If imf refuses bailout, what other options pak has? Is China going to take over pakis ports and other assets?

I have more questions, once somebody answers these for me please.
 

vampyrbladez

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Anybody has an idea......
1. If Paki airspace is still restricted.
2. Tank movement was reported on their side, have we destroyed any more of their tanks?
3. Are more CAPs happening?
4. What happened on march 5,6? Did we destroy their nuclear facility?
5. Have they transferred all nukes to Saudi, or some are still left? Are they still classed as a nuclear armed nation?
6. What happened on the mountains today? There were tweets on some impending action.
7. Are blackouts still happening in karachi?
8. Is IK staying or going?
9. What is happening with Gafoora?
10. Is pak going to remain gray listed or moving to blacklist?
11. If imf refuses bailout, what other options pak has? Is China going to take over pakis ports and other assets?

I have more questions, once somebody answers these for me please.
Go to intel chowkidar on twitter. Should answer your questions. :)
 

Brimstone

Spotter
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Every time I go back Iam shamed nothing has changed. Fucking cast and corruption.
Noob alert. We got a noob. Either they are low on experienced staff or don't have the money/will to do more.
I am sensing a pattern here. They work in pair. One pig with green flag, another one with VPN. Green flag uses hard approach, VPN uses soft approach.
 

Holy Triad

Tihar Jail
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Noob alert. We got a noob. Either they are low on experienced staff or don't have the money/will to do more.
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Good work buddy.............
#PKMKB
 

aarav

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Paki miyans are getting restless whether it is the elite or aam abduls ,they know in the near future prospects of good life in pakiland is very low with new enthusiasm in Baloch freedom struggle and Hizbul ahrar ,ISKP and TTP getting new lease of life and the thrashing they receive on LoC which will only increase once we complete induction of our first phase of 155mm howitzers and ,frustration and disappointment galore in al bakistan
Bash-on.jpg
 

Mikesingh

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Since the pork bags don't wanna discuss about pork bags,


#Pakistan #Gwadar fisherman Communities is on warpath towards #CPEC! They are not allowed to go near #Chinese port in Gwadar and #Pakistani authorities not taking their concerns and today they don't have money to buy already inflated priced groceries
This is just the beginning. Once the Chinese get going with their Naval base in Gwadar, no Paki will be able to go anywhere near there without special permission from the Chinese commissar in Beijing! Even parts of GB where the Chinese have built housing projects for their engineers and PLA for construction and security of the CPEC are a no-go zone for Pakis!!! Special permits are required.
 
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